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कविता

नैन न मेरे हाथ रहे

सूरदास


नैन न मेरे हाथ रहे।
देखत दरस स्यामसुंदर कौ, जल की ढरनि बहे।
वह नीचे कौ धावत आतुर, वैसेहि नैन भए।
वह तौ जाइ समात उदधि मैं, ये प्रति अंग रए।
वह अगाध कहुँ वार पार नहि, येउ सीमा नहि पार।
लोचन मिले त्रिबेनी ह्वैकै, 'सूर' समुद्र अपार।।


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